दिल्ली के एक छोटे से फ्लैट में रहने वाला “शर्मा परिवार” – पिताजी महेश शर्मा, माँ सविता शर्मा, बेटा आयुष और बेटी नेहा। एक आम मध्यमवर्गीय परिवार, जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी के संघर्ष, सपनों, और समाज की अपेक्षाओं के बीच जूझ रहा है।
सुबह की दौड़….
“आयुष, जल्दी उठो, कॉलेज नहीं जाना क्या?” सविता ने जैसे ही चाय का भगोना गैस पर चढ़ाया, आवाज़ लगाई।
“माँ, पाँच मिनट और…” आयुष ने बिस्तर में करवट बदलते हुए कहा।
उधर महेश जी भी चुपचाप अख़बार में सिर गड़ाए बैठे थे, लेकिन मन में हजारों विचार उमड़ रहे थे — अगले महीने नेहा की फीस देनी है, एलआईसी की किश्त बाकी है, किराना भी ख़त्म हो गया है।
सविता जानती थी, महेश कुछ कह नहीं रहे लेकिन चिंता की रेखाएँ साफ़ दिख रही थीं। वह चाय का प्याला उनके सामने रखकर बोली, “परेशान मत हो, सब हो जाएगा… जैसे अब तक होता आया है।”
आयुष एक सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था। कोचिंग, किताबें, और समय — सबका इंतज़ाम तो था, पर मन में असमंजस भी।
“पापा, अगर मैं UPSC की जगह प्राइवेट जॉब कर लूं तो?” एक दिन उसने पूछ लिया।
महेश ने थोड़ी देर चुप रहकर कहा, “बेटा, हम चाहते हैं कि तुम्हारी ज़िंदगी हमसे बेहतर हो। मेहनत कर, सफ़लता ज़रूर मिलेगी।”
लेकिन आयुष जानता था — यह रास्ता लंबा, थका देने वाला और अनिश्चित था।
सविता दिनभर घर संभालती, बच्चों की चिंता करती और फिर टीवी में कभी-कभार कोई धार्मिक धारावाहिक देखकर सुकून पाने की कोशिश करती।
वो जानती थी कि उसने खुद को परिवार के लिए खो दिया था। उसके सपने क्या थे? कभी सोचा भी नहीं।
पर जब नेहा ने एक दिन कहा, “माँ, आप कुछ क्यों नहीं करतीं? ऑनलाइन क्लासेज़ लीजिए ना! आपकी इंग्लिश अच्छी है।”
सविता मुस्कुरा दी, जैसे किसी ने भूले हुए सपने को छू लिया हो।
घर में सब्ज़ी का दाम सुनकर महेश ने पर्स देखा – सिर्फ़ ₹1200 बचे थे।
“इतने में पूरे हफ्ते का कैसे चलेगा?” सविता बोली।
महेश ने कहा, “प्याज मत लेना, बिना प्याज के भी सब्ज़ी बन जाती है।”
नेहा बाहर से सुन रही थी – उसे पहली बार समझ आया कि माता-पिता हर छोटी चीज़ को त्याग कर कैसे उन्हें पढ़ा रहे हैं।
नेहा कॉलेज में टॉपर थी, लेकिन अक्सर दोस्तों की पार्टी, ब्रांडेड कपड़े और महंगे मोबाइल देखकर चुप हो जाती।
“मुझे भी नया फोन चाहिए”, उसने एक बार माँ से कहा।
सविता ने कहा, “अगले महीने पापा की बोनस आए तो देखेंगे।”
नेहा ने धीरे से कहा, “नहीं माँ, ये फोन भी ठीक है।”
उसे समझ आ गया था – जो नहीं है, उस पर रोने से अच्छा है जो है, उसमें खुश रहना सीखो।
पड़ोसी गुप्ता जी का बेटा अमेरिका में था। हर महीने डॉलर भेजता था, नई कार ली थी, घर में एसी लगा।
“हमारे आयुष को देखो… बस पढ़ ही रहा है…” महेश के रिश्तेदार ताना मारते।
सविता ने एक दिन साफ कह दिया, “हमारे बच्चे मेहनती हैं, देर से आएगी लेकिन उनकी सफलता टिकेगी।”
आयुष ने एक दिन ख़ुश होकर घर आकर बताया, “माँ, मैंने एक फ्रीलांस प्रोजेक्ट किया… ₹5000 कमाए।”
महेश जी की आँखें नम हो गईं। सविता ने मिठाई बनाई – हलवा। वही सस्ता, पर सबसे मीठा।
उस दिन सबने साथ बैठकर खाना खाया – बिना किसी शिकायत के।
“शर्मा जी, अब तो लड़की बड़ी हो गई है, शादी का कुछ सोचिए।” रिश्तेदारों की आवाज़ फिर आई।
महेश जी बोले, “पहले उसे अपने पैरों पर खड़ा तो होने दो। शादी तो ज़िंदगी भर की बात है।”
नेहा ने पहली बार पापा की आँखों में गर्व देखा।
नेहा को एक मल्टीनेशनल कंपनी में इंटर्नशिप मिल गई। आयुष का प्रीलिम्स क्लियर हुआ।
सविता ने ऑनलाइन ट्यूटर के रूप में अपनी पहली क्लास ली।
महेश ने खुद से कहा, “हमने सही किया… थोड़ा देर से सही, लेकिन सही रास्ता चुना।”
अब घर में बातें बदल रही थीं — चिंता के साथ उम्मीदें थीं, और थकान के साथ संतोष भी।
किराने की लिस्ट वही थी, लेकिन चेहरे पर मुस्कान आ गई थी।
नेहा ने एक बार कहा, “हम मिडिल क्लास हैं ना माँ?”
सविता ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “हाँ बेटा, पर हमारा क्लास कभी मिड नहीं रहा… हम हमेशा ऊँचे रहे दिल से।”
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